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अधजल गगरी छ्लकत जाय

बढ़ते कदम
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आदरणीय महानतम विद्वान् (सिर्फ अपनी नजरों में) सूफी ध्यान मुहम्मद जी,

प्रणाम! सादर नमस्कार! ! चरण स्पर्श!


‘आपने अधजल गगरी छ्लकत जाय’ वाली कहावत सुनी होगी. आप जैसे 24000 ग्रंथों के पठयिता से यह अदना सी कहावत न पढ़े जाने की सोच रखने की गुस्ताखी तो नहीं कर सकती. किंतु हे ‘पुरुषार्थ’ इस अदना सी कहावत का अर्थ आप समझ नहीं पाए!…यह सोचकर हैरान हूं.


हे सूफी जी महाराज, आपकी बड़ी इच्छा थी कि कोई महिला आपकी ‘निहायती बीमार सोच’ पर प्रतिक्रिया दे. आपने स्वयं को ‘स्वयं ही’ महान् घोषित कर दिया. किंचित यह जान पड़ता है कि महानता की चोटी से कभी आपका परिचय नहीं हुआ. अब तक के आपके मधुर, महान शब्दों से आपकी बस इतनी ही महानता का ज्ञात कर पा रही हूं. इसलिए कह नहीं सकती कि किन महान पुरुषों के संपर्क में आपने महानता की परिभाषा समझी. ऐसा जान पड़ता है कि जिनकी भी वेश-भूषा, वाणी-व्यवहार से महानता की सीढ़ियां चढ़ने लायक आप खुद को समझ सके शायद वे पूरी तरह आपको उस परिभाषा से परिचित कराना भूल गए होंगे. कोई बात नहीं. जीवन में जानने और समझने की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है!


आप तो खुद महाज्ञानी हैं. किंतु हे ‘नारी आकांक्षा के अंतर्यामी महान सूफी (जैसा कि आपका नाम भी सूफी है) पुरुष’! आपको शायद यह अब तक समझ नहीं आया कि बुद्धिमान केवल उसी जगह प्रतिक्रिया देते हैं जहां उन्हें गंभीर सोच होने का अंदाजा हो. आपके लेख की विषयवस्तु और आलेख पर राय देने, राय कायम करने की बात तो बाद में आती है, सर्वप्रथम तो आपका ‘निर्लज्ज’ व्यक्तित्व ही हर तरफ जिराफ की तरह गर्दन ऊंची कर अपने उथलेपन का ढ़िंढ़ोरा पीट रहा है. बात उससे की जाती है…’जो बात करने लायक हो’. वरना तो कीचड़ के साथ खेलते!..कभी देखा है किसी को रोजमर्रा कीचड़ से खेलते हुए?


कीचड़ के साथ खेला नहीं जाता ‘स्व-सम्मानित’ सूफी जी! क्योंकि सबको पता है कंचन पानी में कंकड़ फेंककर उसकी स्थिरता में आया परिवर्तन हमारी आंखों को लुभा सकता है..किंतु काले कीचड़ में पत्थर फेंककर केवल अपने दामन पर काले दाग का निशान ही दिख सकते हैं जो वस्तुत: दामन पर दाग नहीं होता बल्कि उस कीचड़ का चरित्र है जो कंचन पानी के संपर्क में आकर धुल जाता है. ठीक वैसे ही जैसे सज्जनों के संपर्क से मन के मैल धुल जाया करते हैं..’लेकिन मैल जो कीचड़ की तरह धूल पड़ने से बनी हो..जिसका वास्तविक रंग ही मैला हो उसे कितना भी रगड़-रगड़ कर नहला लो, गोरा नहीं बना सकते’…जिसका स्वभाव ही काला हो उससे उज्ज्वल, धवल प्रकाश की उम्मीद तो नहीं कर सकते. इसलिए जहां तक महिलाओं द्वारा ‘आपके बुद्धिजीवी समान ब्लॉग’ पर प्रतिक्रिया न देने का सवाल है शायद मेरे उपरोक्त शब्दों में आप समझ गए होंगे.


बुद्धिजीवियों में ‘अति उच्च पदस्थ’ ‘माननीय सूफी जी’! शायद आपकी याददाश्त से बातें खो गईं कि ‘तुच्छ’ की बातों से कोई इत्तफाक न रखते हुए भी उससे बात करना, उसकी बेतुकी बातों का जवाब देना कोई ‘उच्च श्रेणी’ का मनुष्य पसंद नहीं करता… सामान्य भाषा में आपने सुना होगा या कभी प्रयोग भी किया होगा ‘छोटे लोगों के मुंह नहीं लगते’. ऐसा इसलिए क्योंकि उसके पास एक छोटी बुद्धि होगी जिसे ‘बुद्धि’ की श्रेणी में न रखकर ‘बेवकूफी’ की श्रेणी में रखा जाता है…और इसी बुद्धि के साथ वह ‘छोटा आदमी’ बिना कोई विचार किए कुछ भी बोल देगा यह उस ‘उच्च-श्रेणी’ के इंसान को पता होता है. इसलिए उस ‘छोटे आदमी’ को किसी प्रतिक्रिया-परिणाम से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उस ‘बड़े व्यक्तित्व को तो फर्क पड़ेगा, बेकार की बात में उसका कीमती वक्त बर्बाद होगा. इसलिए अपना समय और सोच किसी ‘मूढ़’ के आगे बर्बाद करने की व्यर्थता को वह भली-भांति समझता है.


हालांकि आपके समान ‘उत्कृष्ट विचारक, बुद्धिजीवी’ से हम उपरोक्त शब्दों में ‘छोटा’ शब्द से ‘नौकर’ ‘गरीब’ आदि अर्थ लगाने की ‘उथली सोच’ की उम्मीद नहीं है किंतु फिर भी (क्योंकि आप स्व-घोषित विद्वान हैं) हम समझाना चाहेंगे कि और प्राणी ‘तुच्छ’ केवल अपनी ‘तुच्छ सोच’ से बनता है.


‘चावल का एक दाना ही काफी होता है जानने के लिए कि चावल पका है अथवा कच्चा ही है अब तक’! सबको मालूम है कि ‘फलों से लदा पेड़ पत्थर तो खा लेता है लेकिन अपनी तारीफ में खुद कुछ बोलता नहीं, उसका मीठा फल खाकर वही पत्थर मारने वाले लोग उसकी तारीफ करते हैं. ठीक उसी प्रकार जैसे ‘पानी से भरा हुआ घड़ा शांति से साथ चलता है लेकिन आधा भरा घड़ा हमेशा छलक-छलक कर पानी से भरे होने का दंभ भरता रहता है. आपकी तुलना में मैं निरक्षर हूं. 24000 किताबें नहीं पढ़ी होंगी शायद या शायद कुछेक जो पढ़ी होंगी गिनकर नहीं पढ़ी. इसलिए अपनी ज्ञान की यथार्थता के संबंध में आपकी तरह इस तरह की कोई पुष्टि नहीं कर सकती. लेकिन मेरी छोटी बुद्धि (मैं उम्मीद करती हूं जो क्षुद्र बुद्धि नहीं होगी), जो निहायत कुछ किताबी ज्ञान और उनसे कुछ ज्यादा पारिस्थितिक ज्ञान रखती है, के अनुसार मुझे लगता है सज्जनों के आदर्श व्यवहार को पारिभाषित करने के लिए ये प्रसंग प्रयोग किए जाते हैं.


जब आपकी तारीफ में आपके अपने कोमल शब्द और उन कोमल शब्दों में इस मंच के अन्य कथित ‘उच्च प्रभावशाली बुद्धिजीवियों सद्गुरु जी, सरिता जी, आदि के लिए उपयोग किए गए ‘सम्मानित’ शब्द चीख-चीख कर खुद ही आपकी सज्जनता का ‘महिमा-गान कर रहे हैं…तो आपके ‘बुद्धिजीवी’ (उपर्युक्त पैराग्राफ शब्दों के आधार पर उम्मीद है खुद के लिए उपयुक्त बुद्धिजीवियों की श्रेणी समझकर आप खुद तय कर लेंगे. आपके ज्ञान पर हम इतना भरोसा तो हम कर सकते हैं कि आप गलत श्रेणी का चुनाव खुद के लिए नहीं करेंगे’) होने पर शक का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता. अब जब समझ आ गया है कि इस जगह बुद्धि की गुंजाइश कितनी है तो भैंस के आगे बीन बजाकर अपना वक्त बर्बाद क्यों किया जाए. यह शायद इस मंच के अधिकांश बुद्धिजीवी समझते हैं. महिला बुद्धिजीवी भी. सरिता जी, सद्गुरु जी, सत्यशील जी जैसे यहां उपस्थित बुद्धिजीवी शायद सुधारात्मक प्रक्रिया में विश्वास रखते हैं. यह सज्जनों की विशेषता होती है. शायद इसीलिए उन्होंने भावनाओं को समझकर उसमें सुधार होने की गुंजाइश ढूंढ़ने की गलती की. खैर गलतियां कर इंसान सीखता है. उन्हें समझ आ गया होगा कि भैंस के आगे बीन सचमुच नहीं बजानी चाहिए, वह अपनी ही धुन में पगुराता रहेगा. कोई असर नहीं होगा.


‘इच्छा तो नहीं है लेकिन आखिरी दफा सोचा मूढ़ के सामने मैं भी थोड़ी देर के लिए मूढ़ बनकर उसे सम्मान दे दूं’..सृष्टि का नियम है एक मौका हर किसी को अपनी तरफ से देनी चाहिए…..


तो आप बात कर रहे थे बलात्कार की’!…और बलात्कार से संबंधित स्त्री-पुरुष की सोच-इच्छा आदि आदि की! महात्मन्! आपको सत् सत् नमन!….कि आप ‘बलात्कार करने और बलात्कार करवाने की चाह रखने विषय’ पर इतनी लंबी चर्चा-चिंतन के लिए अपना कीमती वक्त निकाल पाए. वरना तो ‘बलात्कार करने और बलात्कार करवाने की इच्छा करने’ के अलावे भी दुनिया में कई अति महत्वपूर्ण कार्य हैं…शायद यही सोचकर यहां या इस विषय पर आपके महान विचार पढ़ने वालों ने प्रतिक्रिया देने के संबंध में सोचा होगा कि ‘कुछ सार्थक करना बेहतर है, बजाय चिकने घड़े पर पानी डालकर उसे गीला करने की कोशिश करने के’.


विश्वास करना चाहिए! इसलिए जिसने 24000 ग्रंथों को कंठ किया हो उससे अब इतनी उम्मीद तो कर सकते हैं कि अपनी बुद्धिजीवी सोच (क्षुद्र, तुच्छ सोच) पर महिलाओं की प्रतिक्रिया न मिलने का कारण समझ सकें. आज के अति व्यस्त वक्त में हर किसी के पास वक्त की कमी है. कोई इन महान विचारों की छाया में अपने विचारों की शाखाओं को मारना नहीं चाहता.


जहां तक बात बलात्कार की है ‘स्त्रियों के मन को पढ़ने वाले, स्त्रियों के मन के भावों को समझ सकने वाले अकाट्य विद्वान सूफी जी’! शायद आपको ‘प्रेम प्रदर्शन’ और ‘बल-प्रदर्शन’; ‘प्रेम-आग्रह’ और ‘दुराग्रह’ में फर्क नहीं पता. कृपया इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ से परे ‘गूढ़-अर्थ’ को समझने की चेष्टा में अपने चित्त की बुद्धिमत्ता में हलचल लाते हुए उसे थोड़ा दौड़ाएं.


अगर मैं ‘मूढ़ बुद्धि’ पर समय गंवाते हुए एक मिनट के लिए मूढ़ बन भी जाती लेकिन आपका पूरा ब्लॉग ध्यानपूर्वक पढ़ा नहीं था…हां, एक सरसरी निगाह दौड़ाई थी. आश्चर्य नहीं हुआ, ज्यादा वक्त नहीं दिया क्योंकि हमें पता नहीं था कि ‘राह चलते ऐसे हजारों बुद्धिजीवियों में एक आपके’ इस मंच पर आ जाने से ‘थोड़ा शोर’ मच सकता है. खैर श्वान के आने से थोड़ी देर के लिए हलचल हो सकती है लेकिन हर किसी को पता है ‘श्वान श्वान है’.


हमें पता न था कि हजारों मनचले, राह चलते (क्षुद्र) बुद्धिजीवियों के शब्दों को इस मंच पर ‘अकथ मेहनत’ से इतने सारे शबदों में लिखकर हमें पढ़ने का जो मौका आपने दिया, वह बस कुछ लम्हों का था और आगे उन्हें पढ़ना हमें नसीब न होगा. वरना आप जैसे बुद्धिजीवी (स्व-घोषित) के सम्मान में उन शब्दों को ‘quote’ करते हुए जरूर व्याख्या करते.


पागल कभी नहीं कहता कि वह पागल है. वह सबको पागल कहता है. मूर्ख हमेशा सबको बेवकूफ और खुद को बुद्धिमान कहता है. पर आप उनमें थोड़ी ऊंची प्रजाति के हैं शायद..तभी तो आपको लगा कि सद्गुरु जी सरिता जी या इनके समान जागरण मंच के अन्य स्तरीय लेखक आपकी श्रेणी की बुद्धिमत्ता (तुच्छ) को छू नहीं सकेंगे. हां कोई अदना सा लेखक जो आपके स्तर पर गिर सकता हो, ऐसा कर सकता है. इसलिए आपकी नजर में उन ‘अदना’ लोगों को बहस से बाहर करते हुए सीधे इन बड़े लेखकों को चुनौती दे डाली. वैसे हे महात्मन्! आपको बताना की गुस्ताखी कर रहे हैं एक होती है ’बुद्धि’ और दूसरी होती है ‘दुष्ट बुद्धि’. यह हम किस संदर्भ में कह रहे हैं यह अब किस तरह समझाएं लेकिन जंक्शन पर ही एक चुटकुला पढ़ा था.. जिसकी लाइनें थीं..समझ तो तुम गए ही होगे!


अंत में,

सादर प्रणाम!


आपके जवाबी शब्दों के कुछ महानतम शब्द हैं:

अगर वो पत्रकार हैं तो मैं भी कोई चरवाहा नहीं हूँ


मैं जेजे से दिन में ही निपट सकता था, लेकिन मैं ने ऐसा नहीं किया सिर्फ आपकी खातिर…


मैंने कोई पांच साल मीडिया के लिए काम किया है…फिल्म इंडस्ट्री में आने से पहले मैं दिल्ली में न्यूज़ चैनल के लिए ही काम करता था…!


बर्षों से मैं तथाकथित गुरुओं की बखिया उधेरता आ रहा हूँ, कोई भी दो चार मिनट से ज्यादा टिक नहीं पता है!


मशाल ले कर के समुंदर को डराने की इनकी पुरानी आदत हैं

आश्चर्य तो ये है कि इस बार ये अकेले हैं….पता नहीं इनके गण्यमान्य साथी जन कहाँ दुबके हुए हैं.


अभी तक इन लोगों ने गुटबाजी शुरू नही की हैये लोग मुझ पर ऐसे हमला करते हैं जैसे कोई भेड़ का झुण्ड शेर पर हमला करे…!


अगर मैंने अपने लेख से महिलाओं का अपमान किया है तो क्यों किसी महिला ने मेरे खिलाफ आवाज़ नहीं उठाया…??? सरिता जी ने तो मेरे लेख पर कमेंट किया थाउन्होंने शिकायत क्यों नहीं की…??


कहाँ से आपने पत्रकारिता किया है…?? मेरे कई पत्रकार मित्र हैं मैं ने उनसे भी लेख को पढवाया किसी ने भी मेरे लेख को आपत्तिजनक जनक नहीं बताया, आपने किस दिव्य-दृष्टि से मेरे लेख को पढ़ा बताएंगे आप…??? आपके जागरण में काम कर चुकी मेरी एक महिला मित्र ने मेरे लेख को पढ़ा उन्हें कुछ गलत नहीं लगा, आपने कौन सी अलौकिक दृष्टि का इस्तेमाल किया लेख को पढने के वक़्त बताएँगे आप…??? बचपन से ले कर आज तक मैंने कोई चौबीस हज़ार किताब पढ़ा होगा, दुनिया के एक से बढ़ कर के विवादस्पद लोगों को मैं ने पढ़ा है, मुझे तो किसी भी दृष्टिकोण से मेरे लेख में कुछ गलत और अपमानजनक नहीं लगा, किस आधार पर आपने मुझ से मेरे लेख को हटाने के लिए बोला मैं वो जानना चाहता हूँ…?? और मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि इन छुट-भैये लेखकों को छोड़ कर किसी भी बरिष्ट पत्रकार या लेखक ने अगर मेरे लेख के एक भी वाक्य को असंगत या अनर्गल सावित कर दिया तो मैं लिखना छोड़ दूंगा, ता-उम्र कलम को हाथ तक नहीं लगाऊंगा..,|


अगर आपके जागरण परिवार के लेखकों और संपदकगण में थोड़ी भी प्रतिभा है तो मेरे चुनौती को स्वीकार करें और सामने आ कर मुझ से बहस करेंमैं उनके दलीलों को सुनना चाहता हूँ | मैं जानना चाहता हूँ कि आपका आधार क्या है..???


और आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी, क्या हाल हैं आपके, सब खैरियत..??? आप तो अब मनोचिकित्सक हो गए हैं, बधाई हो… लोगों से बगैर मिले ही पता कर लेते है कि वो कैसा है, आप तो फ्रायड के भी गुरु निकले, घर बैठे बैठे पता कर लिया कि सूफी ध्यान मुहम्मद ‘सिरफिरा’ है…गुड..!! आपने जब मेरा इलाज कर ही दिया है तो मैं सोचता हूँ कि आप को आपकी फीस भी भेज ही दूँ…क्या लेना पसंद करेंगे आप कैश या चेक…??? अपना पता भेज दीजिये गा मैं पैसा भिजवा दूंगा…!! आपने अच्छा ही किया लेखन छोड़ कर मनोवैज्ञानिक बन गए वैसे भी लेखन-वेखन आपके बस की …… (बंकि तो आप समझ ही गए होंगे, मनोवैज्ञानिक जो ठहरे)…!!!!!

“‘अब पाठकों से दो शब्द….!!’


“मज़े लो भाई आप लोग, अगर आप लोगों को बैंड सुनने का शौक है तो मुझे बैंड बजाने का, मधुमक्खी के छत्ते पर मैं ने पत्थर मार दिया है, अभी सब सो रहे होंगे, कल सुबह मेरे लेख को पढ़ते ही ‘भन्नभनाने’ लगेंगे… कुछ लोगों को आग भी लग जाएगी, आप लो अपना हाथ सेक लीजियेगा …ठंड का समय है गर्मी का मज़ा लीजिये…! देखते हैं कल का सूरज क्या नया हंगामा ले कर अता है…!!!!


उम्मीद है हमारे उपरोक्त शब्दों में आपकी उच्च बुद्धि यहां ‘quote’ हर वाक्यांश का हल ढूंढ़ लेगी. (किताबें पढ़कर जवाब तो ढूंढे ही होंगे आपने). अगर कोई जवाब भूलवश छूट गई हो तो हम उसका जवाब जरूर देंगे. पर अपना समय इसपर व्यर्थ गंवाने का अफसोस हमें हमेशा रहेगा.

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