Menu
blogid : 14893 postid : 647845

सूफी ध्यान मुहम्मद जी ने नाम बदल लिया – 2

बढ़ते कदम
बढ़ते कदम
  • 7 Posts
  • 24 Comments

सूफी ध्यान मुहम्मद जी ने नाम बदल लिया – १

https://www.jagran.com/blogs/shipraparashar/2013/11/17/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%AB%E0%A5%80-%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6-%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%A8/

(2)

वैसे यह जो मेरी लाइनों को ‘quote’ कर आपने लिखा है…मैं समझ गई कि आप मुझे समझाने का प्रयास कर रहे हैं…कि…आपने ‘ध्यान से’ मेरा जवाब पढ़ा था. पर ‘ध्यान जी’…(कितने नाम हैं आपके..अब एक और लड़की वाला नाम ‘शिप्रा’ रख लिया है…खैर धीरे-धीरे अभ्यास हो जाएगा..आपके हर नाम को पुकारने की)…मैं केवल ‘ध्यान से पढ़ने की नहीं’..पढ़कर समझने की बात कर रही थी…जो आपके किसी जवाब में कहीं नजर नहीं आ रहा…ओह! एक बार फिर से माफ करना…मैं भूल गई..आपके अनुसार तो जो ‘जानता’ है वह ‘सोचता’ नहीं!..और आप तो सोचते होंगे नहीं..उफ्फ…ओह! मैं भूल कैसे गई यह..दो-चार लाइनें फालतू लिख दीं! आप कैसे समझेंगे!…आप तो जानकार हैं…आप सोचते नहीं…आप तो सिर्फ पढ़ते हैं..बिना सोचे…समझते नहीं…..इसकी परिचायक आपके कुछ उद्धरणों को आपकी सेवा में यहां प्रस्तुत किया है:


हमारी बदकिस्मती ये है कि हम हैं तो ख़ुदा लेकिन सोच-विचार के चक्कर में आ कर बाँदा बने बैठे हैं’…!! सारे सोच तुच्छहोते हैं

अब तो पक्का समझ आ गया….कि आप क्या हैं…भगवान ने आज तक नहीं कहा कि वह ‘भगवान’ हैं..कोई नहीं…आत्मविश्वास की कमी है शायद आपमें..अक्सर ऐसे ही हालात में जब उन्हें लगता है कि लोग उन्हें कम आंक रहे हैं..वे चीख-चीखकर अपनी महिमा-गान करना चाहते है…वस्तुत: यह उनकी अल्प-बुद्धि होती है कि वे समझ नहीं पाते कि यह उन्हें हास्यास्पद बनाता है…(’अधजल गगरी छलकत जाय…का पहला पहलू’!)…कोई नहीं….होता है…आपकी अवस्था का भान है हमें!


हुम्म गणित कमज़ोर है तुम्हारा और यादाश्त भी, बादाम खाया करो..!!

ओह! खुशी हुई जानकर. आपके अंतर्यामी व्यक्तित्व, अंतर्दृष्टि का यह एक साक्षात् उदाहरण है. मेरे दोस्त अक्सर मुझे बादाम खाने की सलाह देते हैं. वैसे याददाश्त से गणित का कोई संबंध नहीं. फिर भी अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की मुझे आदत नहीं. अब आपके अंतर्यामी होने का प्रमाण मिल गया है..इसे गलत बताकर आपका अपमान करने की हिमाकत नहीं कर सकती…पर कृपा कर अब ‘बीज गणित’ और ‘अंक गणित’ के सवाल न पूछ लेना..

कई सारे भूल गए मुहावरे और कहावतें याद आईं…नई जानने को भी मिलीं…(जैसे यूनान की एक कहावत, ‘आदमी एक ऐसा गधा है जो एक ही गड्ढे में दो बार गिरता है’ की….) इसके लिए, कोटि-कोटि धन्यवाद!


लाज उनको होता है जो अपने प्रति हीनता से भरे होते है, जब हम ख़ुद को हीन समझते हैं तो हमें दूसरों से लाज आने लगती है..कि लोग क्या सोचेंगे…!”

बदनाम भी हुए तो क्या हुआ…नाम होता है…अच्छी सोच है! पर नया नहीं!


ये धारना चालबाजी की है, सिर्फ नपुंसक लोग, कमज़ोर लोग, कायर लोग कीचड़ से डरते हैं और बच बच के चलते हैंबुद्ध ने अनुगुलीमाल नाम के कीचड़ में कंकर फेका था और उसको साफ़ कर दिया ..|

मतलब आप मानते हैं कि आप बीमार हैं…और आपको इलाज की जरूरत है…


तुम गलत स्कूल में शिक्षित हुई हो..

आपसे पहले मुलाकात हुई ही नहीं वरना आपकी पाठशाला से दूर रहने की सलाह हर किसी को देती…धन्यवाद उस परमपिता परमेश्वर को!..कि आपकी पाठशाला से बचाया….आपकी शिक्षा और आपके प्रवचन को धारण करने की दीक्षा लेने से बचाया…! अल्पज्ञानी से भला अज्ञानी होना ही है..वो सुना होगा..’नीम-हकीम खतरा-ए-जान’!


आम तौर पर हम जिसको मुर्ख कहते हैं वो मुर्ख नहीं होता है

क्या पढ़ा इतनी बार में मेरा जवाब? …वही तो मैं भी कह रही…जो दूसरों को मूर्ख कहता है वह खुद मूर्ख होता है (आपके शब्द, “हम जिसको मूर्ख कहते हैं वो मूर्ख नहीं होता है)…खुद ही शब्दों के फेर में न पड़ने की सलाह दे रहे….और खुद ही शब्दों के फेर में पड़ रहे…


******मेरे पहले जवाबी ब्लॉग को पूरा पढ़ना ‘ध्यान से’ ‘समझकर’ (अगर एक बार समझ सके) आपके पहले के सारे सवालों के जवाब उसी में हैं…और अभी इसमें जितने जवाब भी आपने दिए हैं, उन जवाबों के जवाब भी उन जवाबों में है, सूफी ध्यान मुहम्मद जी!’ इसलिए बार-बार शब्दों का दुहराव अच्छा नहीं लग रहा. ध्यान से पढ़ो! ध्यान जी! एक जवाब को कितनी बार लिखूं!!


प्राथना करो कि अस्तित्व तुमको मुर्ख बना दे, इस खोपड़ी के बोझ को कब तक ढोती रहोगी…??, माना कि खाली है, जयदा भारी नहीं है फिर भी अब इसको फेक दो और निर्बुद्धि हो जाओ

शायद आप खुद ही नहीं समझ पाते कि लिख क्या रहे हैं…कहीं कुछ लिखा है, कहीं कुछ. लेखनी में इतना विरोधाभास क्यों? या तो मैं मूर्ख बनने की प्रार्थना करूं..(मतलब कि मैं बुद्धिमान हूं).. लेकिन अगर खोपड़ी खाली है (“माना कि खाली है, ज्यादा भारी नहीं है), तो मैं मूर्ख हूं…पर आप मुझे बताना क्या चाहते हैं…मैं मूर्ख हूं या बुद्धिमान? (हालांकि आपके बुद्धिमान होने के सर्टिफिकेट से मैं मूर्ख से बुद्धिमान और अगर मूर्ख होने की उपाधि दे दी तो भी बुद्धिमान से मूर्ख नहीं बनूंगी..फिर भी आपके कथनार्थ को जानने हेतु…) जो भी हूं, एक ही हो सकती हूं……खैर मैं समझ सकती हूं..आप ‘जानने वाले (ज्ञानी)’ हैं….सोचते नहीं…जानते होंगे कि खोपड़ी में बुद्धि होती या वह खाली होती है…तो बस बिना सोचे लिख दिया होगा!!


बुद्धि और दुष्ट-बुद्धिएक ही सिक्के के दो पहलू हैं

फिर वही जनाब!…’ध्यान वाली’ बात..जो मैं एक बार फिर कहना नहीं चाहती…repetition हो रही है….भाई साहब, एक सिक्के के दो पहलू होते ही हैं लेकिन सिक्के के दोनों पहलू विरोधाभास हैं..जैसे ‘अधजल गगरी…” के मेरे वर्णित और आपके वर्णित पहलू!..समझ गए! उम्मीद है मेरे न सही, अपने शब्द तो समझेंगे आप!



मुझे पढ़ने का एक ही ढंग आता है और हमेशा उसी ढंग से पढता हूँ |

मैं हमेशा ध्यान से ही पढ़ता हूँ किसी और प्रकार से मुझे पढ़ना आता ही नहीं है..!!

वह तो मुझे समझ आ गया कि आपके पढ़ने का एक ही ढ़ंग है…किसी और प्रकार से आपको पढ़ना आता ही नहीं!….पर इसके लिए भी एक बार फिर मैं कहूंगी… जब जागो तभी सवेरा होता है….छोड़-छोड़कर, आधा-अधूरा पढ़ने की आदत में सुधार ला सकते हो…


मुझे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या ऊँची ऊँची फेक रही हो |

मतलब आप मानते हैं कि आप बड़े ‘निचले-स्तर; की बात कर रहे हैं!!



अगर मेरे पास दिमाग होता तो उसमे भूसा भी ज़रूर होता, लेकिन मज़ा ये है कि मेरे पास दिमाग है ही नहीं है, वर्षों पहले मैं ने उसमे ख़ुद आग लगा दिया थावैसे अगर तुम मेरे दिमाग में आग लगाने की कोशिश कर रही थी तो मैं तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ |

बताने की जरूरत नहीं…मैं आपकी तरह अंतर्यामी नहीं…पर कुछ आप जैसे श्रेष्ठ जनों की सोहबत का असर है कि थोड़ा-बहुत लोगों को समझ लिया करते हैं. आपके दिमाग की अवस्था का भान भी हमें पहले ही हो गया था..हमने बताया भी था..(“आपकी अवस्था का भान है हमें”)…पर जाहिर है, आपने इसे भी नहीं समझा..’दिमाग के अंदर भरे भूसे’ में ‘दिमाग’ से तात्पर्य आपके ‘ज्ञान’ और ‘आपकी जानकारी’ से था, ‘ध्यान जी!”…थोड़ा सोचते..थोड़ा भी ‘ध्यान से पढ़ने का अर्थ’ समझते..तो शायद इसे भी समझ जाते!



बहन मेरी कोई न तो थीसिस है और न ही एंटीथीसिस है, मेरे पास बस सिंथीसिसहै |”

यह तो मैं समझ ही गई थी ‘सूफी जी!’… बिना सोचे आपने वह भी लिख दिया होगा. सोचा भी नहीं होगा कि लिखा क्या है. मुझे लगा कोई बड़ी थीसिस होगी आपकी जो मुझ अज्ञान को समझ न आई..खैर, ऊपर ही आपके ‘विचारों’ वाली बात से समझ गई थी कि आप थीसिस नहीं देते. सोचे बिना कुछ भी करते/कहते हैं. ‘शब्दों के फेर में क्या रखा है. कहीं भी कोमा/पूर्णविराम लगाओ…शायद यही आपकी थीसिस है…एक बार फिर जंक्शन पर आज ही पढ़ा एक और चुटकुला यहां जिक्र करने लायक लग रहा..जिसमें विराम के महत्व को न समझनेवाली अल्पज्ञानी पत्नी ने पति को चिट्ठी कुछ यूं लिखी थी: “आप ने अभी तक चिट्टी नहीं लिखी मेरी सहेली को. नौकरी मिल गई है हमारी गाय को. बछड़ा दिया है दादाजी ने. शराब की लत लगा ली है मैंने. तुमको बहुत खत लिखे पर तुम नहीं आये कुत्ते के बच्चे. भेड़िया खा गया दो महीने का राशन. छुट्टी पर आते समय ले आना एक खूबसूरत औरत. मेरी सहेली बन गई है. और इस समय टीवी पर गाना गा रही है हमारी बकरी. बेच दी गयी है तुम्हारी मां. तुमको बहुत याद कर रही है एक पड़ोसन. हमें बहुत तंग करती है”..हा हा हा….बहुत खूब..लतीफे स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छे होते हैं..

‘पर यहां शायद बात कुछ और भी है..कि आप शब्दों के फेर में नहीं पड़ते..’ भाई, बहुत खूब! मान गए! भाषा की मदद से एक-दूसरे को बातें समझाने के लिए अक्षरों और शब्दों आविष्कार किया गया..भाषा का आविष्कार किया गया…पर आप तो भाषा का सबसे महत्वपूर्ण भाग शब्दों के फेर में ही न पड़ने की बात करते हैं. मान गए भाई! आपकी सूफियत को सफा करने को जी चाहता है.



विचार सिर्फ बकवास होता है और कुछ नहीं…, न तो कुछ सही होता है न ही कुछ गलत..|

जाहिर है, इसपर तो यूं भी कुछ कह नहीं सकती क्योंकि आप तो सोचते ही नहीं…और विचार भी तो ‘सोच’ से ही बनते हैं! आप सोचते ही नहीं तो विचार की बातें तो ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ ही होगा आपके लिए!



माननेसे काम नहीं चलेगा बच्ची, इतने हलके में तुम्हे नहीं छोडूंगा मैं…’जाननाहोगा तुम्हे..

बच्ची भी कहते हैं और धौंस भी दिखाते हो, ‘ध्यान जी!’. मैं बच्ची हूं या बुढ़िया, यह तो और बात है. लेकिन इसमें कहीं खीज झलकती है आपकी. यहां शायद आपके द्वारा प्रयोग की गई ऊक्ति (‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’) चरितार्थ हो रही है. अब आप जैसे ज्ञानी को ऐसा सीधे-सीधे कह तो नहीं सकती क्योंकि आपकी और वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो गया है..लेकिन काश कि मैं कह पाती यहां..’समझ तो गए ही होगे तुम!’



“ मैं तुम्हें पूरा आकाश दे रहा हूँ और तुम हो कि अपनी खिड़की को छोड़ने को तैयार ही नहीं हो..!!

“बिना फीस लिए वकील बनने की आदत है क्या आपको?” मैंने आकाश मांगा ही नहीं! आप जबरदस्ती लेने को जिरह कर रहे! दूर से तारे और चांद देखकर दिल-दिमाग को शांति-सुकून का एहसास होता है, प्रकृति की खूबसूरती का एहसास होता है. चांदनी रात में खिड़की पर बैठकर कभी चांद निहारना या काली रातों के तारे भी सुकून देते हैं. पर ये चांद-तारे दूर से अच्छे लगते हैं. आकाश लेकर, चांद पर जाकर धरती की खूबसूरत आब-ओ-हवा वहां नहीं मिलेगी….और तारों के पास भी जाकर जलकर मर ही जाएं. इसलिए जबरदस्ती का आकाश आप ही रखो सूफी जी..आपके सूफियाना मिज़ाज के लिए अच्छा रहेगा. मेरे लिए खिड़की से चांद-तारे निहारना ही आनंददायक है.

“वैसे आपकी नजर में मैं बच्ची हूं…तो छोटा मुंह बड़ी बात होगी. फिर भी एक सलाह दूंगी..”कभी-कभी ज्यादा पाने की लालच में हम थोड़ा भी (जो मिलता है) खो देते हैं. ‘लालच बुरी बला है’..सुना होगा आपने! बच्चों की वह कहानी पढ़ी होगी…जिसमें किसी राजा को पारस पत्थर मिलता है और वह और सबसे धनवान राजा बनने के लोभ में पूरे राज्य को सोना बना देता है. यहां तक कि खाने को भी…भूखों मरने की नौबत आ जाती है उसकी..इतना धनी होकर भी!….कभी पढ़ना अगर न पढ़ा हो तो….आप तो पढ़ने में एक्सपर्ट हो…अब यह मत कहना कि आप सिर्फ किताबें पढ़ते हो…अरे भाई, कहानी भी किताबों में होती हैं…

वैसे बच्ची हूं..अब तो आपने भी मान लिया है इसलिए बच्चों वाले इन उद्धरणों के प्रयोग का कारण उम्मीद है आप समझेंगे…अगर नहीं समझे..नहीं…इतने भी आप….!!



मेरे से उम्मीद लगाने को कहा किसने आपको शिप्रा जी, मैंने क्या आपके उम्मीदों पर खड़ा उतरने का ठेका ले रखा है..हद करती हैं आप भी….

क्योंकि आपने मुझे बच्ची संबोधित किया है..इसलिए आपके मान में अब ‘भाई साहब’ की जगह ‘बड़े भाई साहब’  लिखना सही होगा…

‘बड़े भाई साहब’, frustration में तो आप दिख रहे हो. मैं तो शांत भाव से आपकी बातों (बकवाद) को समझने और केवल उसका उत्तर देने का प्रयास कर रही हूं. ‘बकवाद’ जैसी बातों की जगहों पर ‘बकवास’ करने की आवश्यकता पड़े तो हमें गुरेज नहीं. आप जैसे दर्जनों भाई साहबों की कृपा से ही तो हमने यह सीखा है. हम विश्वास दिलाते हैं कि ‘सीखने की इस प्रक्रिया’ के साथ ही ‘सीख के प्रयोग की प्रक्रिया’ भी अनवरत चलती रहेगी.



किस तरह समझाऊं कि मुझे आपसे तार्किक बातों और तर्कसंगत जवाबों की अपेक्षा नहीं है”…. तो क्या अपेक्षा है तुम्हारी, गाली दूँ..??सम्राट के सामने आ कर भी अठन्नीकी भीख मांगती हो..?? हद दर्ज़े की गरीबी है आपकी.., अरे मांगना ही है तो कुछ ढंग की मांगो…,गाली-गलौज़ सुन कर क्या करोगी…???

एक बार फिर वही रट…खैर आश्चर्य नहीं…अब जब अपनी तारीफ में खुद ही आपने इतना कुछ कह दिया तो हम कह भी क्या सकते हैं!…सम्राट के सामने आकर गरीब कुछ मांगता नहीं. सम्राट की जो इच्छा होती है, वह गरीब को दे देता है. अब यह और बात है कि कभी सम्राट ‘सम्राट’ होकर भी नादान हो सकता है….भूखे को खाना चाहिए, हो सकता है उसे इसकी समझ न हो और वह भूखे गरीब को ‘खाना’ देने की बजाय ‘मोती’ देकर चला जाए. हां, यह भी और बात है कि सम्राट अपनी नादानी और नासमझी में समझ नहीं पाता कि मोती कीमती होगा ‘उसके लिए’..या ‘उसके जैसे किसी और के लिए’…लेकिन भूखे के लिए वह ‘मिट्टी समान’ है और वह उस मोती की कीमत को मिट्टी में ही मिला देगा”..

तो बस बड़े भाई साहब! अब आप जो दें!…’अठन्नी’ या ‘गाली-गलौज’…अपने अनुसार उसका मूल्यांकन कर हम मोल चुका देंगे. और क्या कहें…एक बार फिर से जिसपर हम दोनों की सहमति बनी (‘समझ तो तुम गए ही होगे’ पंक्ति) यहां प्रासंगिक है…उम्मीद है आप सहमत होंगे….कम से कम इसे…”समझ तो तुम गए ही होगे!”


अंत में एक विशेष सलाह के रूप में ‘आपके द्वारा ही उद्धरित एक उक्ति की सलाह आपको देनी चाहूंगी…

“विश्राम को उपलब्ध हो जाओ!! व्यस्तता विक्षिप्तता है!!” क्योंकर इस बेतुकी बहस में ‘व्यस्तता’ दिखा रहे और इस व्यस्तता से ‘विक्षिप्तता’ को आमंत्रण दे रहे!!…सूफी ध्यान मुहम्मद जी!!

.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh