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सूफी मुहम्मद झूठ बोल रहा था

बढ़ते कदम
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आदरणीय सूफी जी, उम्मीद है आपने मेरे जवाब का इंतज़ार नहीं किया होगा। अगर किया तो क्षमापार्थी हूँ… इंतजार कराने के लिए! क्या करें आपका तो धंधाही यही है… हमारा रोजगार ये नहीं है…तो चलिए शिप्रा-सूफी बकवाद शुरू करते हैं:


“गलत समझ ली तुम, मैं ने मजाक किया था, मजे लेने का तो सवाल ही नहीं उठता है”

मैंने मजाक नहीं किया था सूफी जी! मैं ऐसा कर रही..आजकल मेरे कभी-कभार के खाली वक्त का एंटरटेनमेंट बन जाता है आपकी बातें पढ़कर हंसना…. हां, थोड़ा उबाऊ जरूर होता है आपके जवाबों की कड़ी में लिखना, टाइप करना….पर मैं आप जैसी ज्ञानी नहीं…खाली का महत्व नहीं समझती.. थोड़ी देर के लिए भी खाली बैठी ऊब जाती हूं और खाली बैठने की ऊबन से यह बेहतर है.


जब हम किसी से ये कहते है ‘मैं बस तुम्हारे साथ मजे ले रहा था’ तो ये अपमान है उस व्यक्ति का…

हां, अपमान तो है क्योंकि हम उस व्यक्ति की बेवकूफी का मजाक उड़ाकर अपने अहंकार को तुष्ट करने का मजा ले रहे होते हैं. पर यही दुनिया की रीत है सूफी जी!…’हम पर तुम, तुमपर खुदा’… हर कोई कभी-न-कभी, किसी-न-किसी रूप में किसी और का मजाक जरूर उड़ाता है और इसी तरह उसका भी मजाक उड़ता है…इसमें नया कुछ भी नहीं, न इसके लिए बुरा महसूस करने की कोई बात है.


“चीनी की गोली के साथ दवाई मिला कर देने में आसानी होता है”

सूफी जी.. इसी खुशफहमी में शुगर की दवाई में शुगर मिला कर किसी को मत खिलाना, बेचारे मुफ्त में मारे जाएंगे….You proved ‘Wise Man’s Folly!’ Well Done!


“खाली स्थान को पढ़ों”

खाली स्थान….अच्छा याद दिलाया… शायद आप भूल रहे हैं सूफी जी..कि दुनिया में कोई स्थान खाली नहीं…. जिसे हम-आप खाली समझते हैं वह भी दरअसल भरी हुई है… हवा से! हां, यह और बात है कि उस खाली सी दिखने वाली हवा को हम किसी भी वस्तु से विस्थापित कर सकते हैं… उस खाली जगह में हम ध्यान कर सकते हैं…. पर उस खालीपन में भी एक सन्नाटा गूंजता है… एक शोर होता है जो चित्त को अशांत कर देता है… पर आपको खाली स्थान से बड़ा प्रेम है…शायद इसलिए आप इतने अशांत मालूम पड़ते हैं….


तुम शायद सोच रही हो कि तुम मुझ से लड़ रही हो या मजे ले रही हो या मुझे सुधार रही हो

मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा. आप स्वयं ही कह रहे हैं….जान पड़ता है आप खुद को बिगड़ा हुआ समझते हैं.. तभी आपको मेरे शब्दों में ‘सुधारने की मंशा रखने’ की शुभां हो रही है… वरना हम तो आपको परम विद्वान् समझते हैं, महाज्ञानी जी! … 24000 किताबों के पठयिता … !


किंतु शायद आप मेरे शब्दों को इसी रूप में ले रहे हैं…इसीलिए आपका अहंकार सामने आ रहा है….


अगर आप मेरे शब्दों को इस रूप में लेते भी हैं तो मेरे लिए खुशी की बात होगी…हालांकि मैं जानती हूं कि राम ने रावण के ज्ञान का सम्मान करते हुए उसे कितना भी समझाने का प्रयास क्यों न किया हो, रावण ने अपना अहंकार कभी नहीं छोड़ा और आखिर उसकी बलि देनी ही पडी…इसलिए ऐसा कोई विचार अब तक तो मेरे मन में नहीं था…लेकिन आपके ये शब्द सुनकर सोचती हूं…काश कि मैं बुद्ध होती और अंगुलिमाल की तरह आपके अहंकार को ठिकाने लगा पाती….!


मनुष्य की प्यास एक ही है…!!

सही कह रहे हो मुहम्मद जी… मनुष्य की प्यास एक ही है – ‘हवा की प्यास’! सांसों की जुगत इस प्यास के अलावा दुनिया में और कोई प्यास नहीं..


भूल है तुम्हारी जल्दी ही तुम थकोगी, और जैसे ही तुम थकोगी असली बात तुमको समझ में आएगी, बुद्धि को थकाना ज़रूरी हो जाता है… ताकि तुम थको, ताकि तुम्हारी बुद्धि घूम जाये

बहुत सही पहचाना…. आपके अन्तर्यामी होने की एक और पहचान. मैं वास्तव में थक गई हूं…आपसे बकवाद करते-करते…. क्योंकि निरर्थक काम करना मेरी आदत में कम ही शामिल है… बस कभी-कभी मनोरंजन के लिए ही कर लिया करती हूं..


वैसे आप जैसे ज्ञानियों के लिए इसका एक और पहलू है ‘ध्यान जी’…कि थकान के बाद एक नई ऊर्जा मिलती है… थकान के बाद गहरी निद्रा में इंसान वापस स्फूर्ति पाता है… कुछ नया कर पाने, कुछ नया सोच पाने की स्थिति मिलती है… थकान साहस का, नई ताकत का द्योतक है… आज जिनके पास थकने के कारण नहीं वे थकने के लिए जिम जाते हैं.. योगा-कसरत करते हैं….दिमाग के थकने के लिए puzzles खेलते हैं… क्योंकि उन्हें पता है बिना थके उनकी ताकत जाती रहेगी….


“The way I see it, if you want the rainbow, you gotta put up with the rain. ”

थकान हमेशा नए बल, नई ऊर्जा-संचार का द्योतक रहा है और हमेशा रहेगा सूफी जी…. दरअसल ‘थकान का वास्तविक अर्थ है ‘थकान दूर करना’…. जड़ता को दूर करना…. नए सृजन की और उन्मुख होना…. इसलिए थकान से डरना अच्छी बात नहीं….इससे आलसी डरते हैं.. और वे हमेशा आराम फ़रमाते है… पर उनका आलसपन उन्हें एक बोझिल, ऊबाऊ खीज से अधिक कुछ नहीं दे सकता…. मैं भी इस बकवाद में इसीलिए गौर फरमा रही हूं महानुभाव ताकि आप जैसी जड़-बुद्धिमत्ता का पूरा परिचय लेते हुए थक कर मैं कुछ नया सोच सकूं… आप ही की बात तो हम भी कह रहे हैं.. आपके ज्ञान के प्रकाश में अपने ज्ञान पर पडी धूल झाड़ रहे हैं…आप शुक्रिया कहने की बात कर रहे.. इसके लिए हम ‘आपका धन्यवाद’ जरूर करेंगे….


जैसे ही कोई मुझ से बहस करता है मैं खुश हो जाता है क्योंकि अब उस आदमी को कोई नहीं बचा सकता है…उसका भ्रष्ट होना तय है…!!

कोई बचने की कोशिश करे तो उसे बचाया जाता है सूफी जी..आप तो बहुत सारी खुशफहमियां पाले बैठे हैं.. बचा उससे जाता है जिसका मुकाबला किया जाता है… हमने आपसे मुकाबला करने की बात कब कही… मुकाबला हमेशा बराबर वालों से करते हैं… आपकी नजर में आप सम्राट हैं… और हमारी नज़रों में ‘एक भटका हुआ इंसान’… दोनों ही श्रेणियों में आप हमारे मुकाबले के काबिल नहीं ‘ध्यान जी’… अपने शब्दों का ध्यान रखा कीजिए….


वैसे आपने मुझ जैसे अदना से मुकाबला करने की सोची भी कैसे? हम तो बस सम्राट की नगरी में सेंधमारी का काम कर रहे थे.. बताने के लिए कि सम्राट कोई खुद के मानने से नहीं होता, सम्राट उसे तुच्छ लोग ही आदर देकर बनाते हैं…लेकिन आदर किसी को तभी मिलता है जब वह उन तुच्छ लोगों के तुच्छ होने का महत्त्व समझता है, जब वह समझता है कि जब तक ये तुच्छ लोग उसे खुद से बेहतर मानेंगे उसे सम्राट मानेंगे…. और जैसे ही उन्हें समझ आ जाएगा कि वह भी उन्हीं सा तुच्छ है, बस एक पल में वे उसे अपमानित करने को देर नहीं लगाएंगे… इसलिए सम्राट खुद अपना सम्मान बनाए रखता है…आप खुद ही अपने ज्ञान पर बार-बार प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं.. सम्राट अपने साम्राज्य को खुद ही मिटाने पर कयों तुले हो? अब ये मत कहना ‘साम्राज्य आपका, आप जो चाहे करें’


धीरे धीरे भ्रष्ट कर दूंगा मैं तुमको, ये मेरा रोज़ का धंधा है…यही काम ही करता हूँ मैं..

निकम्मे हैं आप… ओ  हो… अंदाजा था मुझे….आज प्रमाण मिल  गया… खैर थोड़ी देर के लिए थोड़ा खुश हो लीजिए… आजकल मैं भी निकम्मो वाला काम ही कर रही हूं.. अंदाज अच्छा है.. वैसे हम इस ऊक्ति पर पूरा विशवास करते हैं…’चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग’… चट्टानों से टकराकर सागर की लहरें भी टूट जाया करती हैं.. आप तो फिर भी इनमें से कुछ भी नहीं सूफी जी…


वैसे एक बार को अगर आपकी बात भ्रष्ट करनापर गौर किया जाए…. सूफी जी! आपसे ऐसी उम्मीद हमें तो नहीं थी… (अब ये मत कहना कि उम्मीद करने आपने तो नहीं कहा… अच्छा नहीं लगेगा…. ज्ञानी महोदय से उम्मीदें तो होती ही हैं)


भ्रष्ट कर देंगे, हरा देंगे; भ्रष्ट हो जायेंगे, हार जाएंगे ‘…. ऐसे सारे शब्द वस्तुतः डर और निराशाकी झलक देते हैं….. जिन्हें  डर होता है खोदेने का;हार जानेका… वरना  तो आपने सुना होगा  – ‘There is the Will, There’s the Way….


सूफी जी! सामान्य इंसान स्वयं के लिए भी यही सोचते हैं और दूसरों के लिए भी… इतने महाज्ञानमी, 24000 हजार किताबों के पठयिता के शब्दों में आखिर इतनी हताशा और निराशाके कारण क्या हैं… क्या हो सकते हैं!


अभी मेरे ऑफिस में एक लड़की है वो बता रही थी ‘रात को जब सो रही होती हूँ तो तुम्हारी बातें मेरी कानों में गूंजती रहती है, मेरी माँ कहती है कि ऑफिस बदलो, जब से ऑफिस जाना शुरू की को अजीब होती जा रही हो’……. इसीलिए जीतनी होशियारी तुमको दिखानी है दिखा लो…लेकिन बचना तुम्हारा मुश्किल है…

अगर आप झूठ नहीं बोल रहे.. सूफी जी.. I must say… आप बड़ी जल्दी खुश हो जाते हैं.. बड़ी खुशफहमी पाल लेते हैं.. यथास्थिति का यथा-वर्णन नहीं कर पाते आप.. और कुछ भी अपनी पसंद का सोच लेते हैं… मैं तो उस लड़की को सलाम करती हूं.. और आपके ऑफिस की सभी लड़कियों को कि झेल लेते हैं वे आपको! इन्हें तो वाकई में सलाम कि आपसे इतना तंग होने के बावजूद वह वहां मौजूद हैं… छोड़ा नहीं ऑफिस….Salute to that Lady!


वैसे आप ऑफिस में काम क्या करते हैं..? बकवाद करने का..? नि:संदेह ऐसा ही कोई काम होगा.


“हर बात के कम से कम सात पहलू होते हैं…”

“सांस लेने के कोई 82 तकनीक है”

यूं तो दिशाएं भी 10 होती हैं सूफी जी… लेकिन जो महत्त्वपूर्ण हैं वे 4 ही हैं… अन्य सभी इन्हीं 4 से बनी हैं… रंग भी अनेक हैं पर जो मुख्य हैं वे 3 ही हैं… अन्य जो भी हैं इन तीनों के मेल से ही बने हैं…. इसलिए सर्वप्रथम मूल का जानना अति आवश्यक है…. इसलिए मूल को जानो, उसकी प्रकृति से तो भिज्ञ हो जाओ….. सिक्के के जो दो मुख्य पहलू हैं, आप तो अब तक उसी से अनभिज्ञ हो और कूद गए बाकी के पहलू को जानने में… खैर हमें तो पता है.. आपको छोड़-छोड़कर पढने की आदत है… वैसे ज्ञानी सूफी महोदय, इमारत की नींव ही उसे मजबूती देती है… खूबसूरत इमारत बनाने की जल्दी में उसकी नींव को अनदेखी करना ‘धन, परिश्रम, और उसमें लगने वाला समय’ तीनों की बर्बादी है…. इमारत एक छोटे से झटके से ढह जाएगी…. और इसे जितनी ऊंची बनाने की कोशिश की जाएगी, यह उतनी जल्दी ढह जाएगी…इसलिए नींव बनाना, मूल को जानना बहुत आवश्यक है…. बाकी सब उसी की शाखाएं हैं… टहनी पेड़ से ही आई… पेड़ को काटोगे, टहनी अपने आप सूख जाएगी….


वैसे महोदय, आपको इतनी जल्दी क्यों मची ज्ञानार्जन की?… ज्ञान की कोई सीमा नहीं…. यह तो अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है… जितना जानोगे, उतनी और जानने लायक बातें प्रश्न बनकर सामने आएंगी…. उस प्रश्न का उत्तर ढूंढोगे, एक और नया प्रश्न उसी उत्तर में सामने आएगा….


अगर आकाश आपका है महानुभाव, आपको पता होना चाहिए…. ‘आकाश अनंत है’… ज्ञान की भी कोई सीमा नहीं…. इसे जानने की इतनी जल्दी मत मचाओ…. जो जानना हो अच्छी तरह जानो, पूरा जानो…. तब आगे बढ़ो… विवेकानंद बनने की कोशिश मत करो… हर इंसान की अपनी एक विशेषता होती है जो दूसरे नहीं कर सकते..दूसरों को कॉपी करने के बजाय अपने ‘स्व’ को पहचानने की कोशिश करो..(यह भी आत्मविश्वास की ही बात है)..वरना फिर वही होगा…. नींव के अभाव में इमारत ढह जाएगी…. आप जैसे ज्ञानी से ऐसी अपेक्षा नहीं करते…


Monk: “What does one think of while sitting?”

Master: “One thinks of not-thinking.”
Monk: “How does one think of not-thinking?”
Master: “Without thinking.”

If you have a belief in Buddha…You must would have known…


“Do not believe in anything simply because you have heard it. Do not believe simply because it has been handed down for many generations. Do not believe in anything simply because it is spoken and rumored by many. Do not believe in anything simply because it is written in Holy Scriptures. Do not believe in anything merely on the authority of teachers, elders, or wise men. Believe only after careful observation and analysis, when you find that it agrees with reason, and is conducive to the good and benefit of one and all. Then accept it and live up to it.”

-Buddha


sufiji! Sufi ji! Sufi Ji! आपके ध्यान की समाधि से स्व-ज्ञान की प्रकाश किरणें कब फूटेंगी सूफी जी!


विचार पुनुरुक्ति है, जुगाली की प्रिक्रिया है

पढ़ा है कहीं, अच्छा हुआ याद दिलाया.. वैसे विचार भी सोच से ही आते है…पर आप तो सोच में यकीन ही नहीं रखते..इसपर कैसे यकीन करते हैं? या फिर से झूठ बोल रहे?


इसको नियम बना रोज़ एक घंटा, एक समय तय कर लो और उसी समय पर एक आरामदायक आसन में बैठ जाया करो आंखे बंद कर के, एक बार बैठ गए फिर अगले एक घंटे तक चाहे कुछ भी हो जाये शरीर को हिलाना डुलना मत, पत्थर की तरह जम जाना..!! इसको झाजेन कहते हैं जापान में

हमारी चिंता करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। … वैसे हमें लगता है कि आपको इनकी बहुत जरूरत पड़ती होगी….


पर अच्छा होता अगर आप इसे करते…इसके लिए कोई समय तय करने की भी जरूरत नहीं, दिन-रात, सुबह-शाम या किसी भी समय कर सकते हैं…ज्यादा कुछ करना भी नहीं….न ही ज्यादा वक्त देना है…1 घंटे की भी जरूरत नहीं, कुछ मिनट भी काफी हैं…10 मिनट के लिए भी करेंगे…तो कुछ ही दिनों में ‘शांत भाव’ का स्मरण हो आएगा….हमारे भारत में इसे ‘प्राणायाम’ और ‘शवासन’ कहते हैं. प्रक्रिया आप्को पता ही होगी..आप महाज्ञानी हैं.. अगर नहीं भी पता तो  आप इंटरनेट गुरु से आसानी से प्राप्त कर सकते हैं..


जल्दी ही बसंत आया गा और फूल खिलेंगे…तुमको कुछ करने की ज़रुरत नहीं होगी

(ये कुछ ऐसा ही हुआ…student से ओझा ने कहा, ‘ये ले भस्म’! रोज इसे लगाकर ऊ… ऊ… चिल्लाकर सिर धुनना….। बुद्धि मिलेगी और पास हो जाएगी….

हा हा हा…)


वैसे ये आलसी लोगों का काम है सूफी जी…. कर्मठ तो बंजर में भी फसल उगाते हैं. कोई खाना पका-पकाया भी दे दे, निवाले को मुंह तक तो ले जाना ही पड़ता है, वरना भूखे मरने की नौबत आ जाती है… spring can grow the grasses, only then, if there be a grass seed…without seed it is not possible to grow the grasses even if there comes a spring season.


जिन्हें खुद पर यकीन नहीं होता, वे ऐसी बातों पर भरोसा करते हैं, ‘सूफी जी’! आप तो 24000 किताबों के ज्ञाता हैं, चाहें अभी के अभी इसे 1 लाख बना दें… ऐसे महाज्ञानी, कर्मठ जान पड़ने वाले के मुंह से ऐसी आलसी बातें शोभा नहीं देतीं…. इतना ज्ञान होकर भी आपको खुद ही अपने ज्ञान का भरोसा नहीं! क्यों? आत्मविश्वास की इतनी कमी क्यों है आपमें?


तुम चौबीस हज़ार से परेशान हो रही है, मेरे मूड पर कभी भी चौबीस को एक लाख कर दूँ…|

हमने तो माना ही… बड़े भाई साहब, आप जैसे ज्ञानी पुरुष की इस श्रेष्ठता का उल्लेख और मान तो हम पहले ही कर चुके हैं…

वैसे यह चित्त की चंचलता का प्रतीक है… चित्त की चंचलता अच्छी बात नहीं…. यह हमेशा भागने को मजबूर करेगी….ऐसे तो भागते हुए जीवन के किसी खूबसूरत लम्हे को देख नहीं पाओगे…. क्योंकि भागते हुए वह पीछे छूट जाएगा….सूफी जी!


जिसको तुम अभी असंभव कह रही हो वो सब संभव हो जायेगा…,

जो एक को हो सकता है वो सब के लिए संभव है…!!!

मैं अचंभे में नहीं, अचंभे को ‘साधारण’ बनाने में यकीन रखती हूं… जिसे लोग अचंभा समझकर अचंभित होते हैं, मैं उसे ‘साधारण सी बात’ साबित कर लोगों को को अचंभित करने में यकीन रखती हूं… और मेरी बुद्धि चंचल नहीं… एक बार जो सोचती हूं, उसी पर टिकी रहती हूं… आपका तो यूं भी भरोसा नहीं न, सूफी जी! कल को आप कहेंगे कि आप तो झूठ बोल रहे थे…बातों को हल्का करने के लिए हल्की बातें कर रहे थे… आपने तो यूं भी खुद को विशवास लायक नहीं छोड़ा….!


तुम्हरा बोध इतना जग सकता है कि किताब को सिर्फ छू कर तुम ये जना सकती हो कि उसमे की लिखा है

इसमें हमें भी जरा भी संदेह नहीं ज्ञानी जी!…वैसे हम कई बार कह चुके हैं कि हम सिर्फ जानने की नहीं, समझने की बात कर रहे….

क्रमश:

(Next: https://www.jagran.com/blogs/shipraparashar/2013/11/26/%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%AB%E0%A5%80-%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6-%E0%A4%AF%E0%A4%B9%E0%A4%BE/)

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