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समाज के मानकों को बदलना आसान नहीं होता. लेकिन क्या समाज का कोई भी मानक समाज का ध्रुवीकरण करने का अधिकार देता है? शायद पहली दफा यह सवाल बहुतों को समझ न आए लेकिन समाज के चिंतकों को इस सवाल में छिपी चिंता जरूर नजर आएगी.
दिल्ली के एक पॉश इलाके ‘वसंत कुंज’ में अहले रात 10 बजे (दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में जहां 11 बजे रात तक सड़कें दौड़ती हैं, रात के 9:30-10 बजे रात को ‘ढलता शाम’ कहा जाना ज्यादा बेहतर है) इंसानियत को शर्मसार कर देने ब्वाली बलात्कार की घटना ने पूरे देश में बवाल मचा दिया. पूरे देश में गुस्से की एक लहर उठी. पूरा देश एक बारगी हिल उठा जैसे. ऐसा लगा इन पांच दरिंदों की करतूतों की शोर ने देश की सोई हुई आत्मा को, सोए हुए आत्मसम्मान को जगाया हो. अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही लड़की को इंसाफ दिलाने और घटना के विरोध में तमाम हिंसक-अहिंसक धरना-प्रदर्शनों के बीच ऐसा माहौल बना दीख पड़ता था जैसे एक नई क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ हो.
हमारे संविधान में प्रावधान है कि ऐसी लड़कियों-औरतों के नाम उजागर न किए जाएं ताकि लड़की की मर्यादा बनी रहे. शायद कानून भी यही मानता है कि एक बलात्कार के साथ लड़की की इज्जत चली जाती है. कमाल की बात है कि जिसने कुकर्म किया उसकी इज्जत फिर भी सलामत है क्योंकि वह ‘पुरुष’ है और जिसने कुकर्म भोगा उसकी इज्जत चली गई. क्यों? क्योंकि वह ‘एक स्त्री’ है. खैर यहां यह बहस का मुद्दा नहीं है. कानून की इस हिदायत का पालन करते हुए मीडिया ने इसे नाम दिया ‘दामिनी बलात्कार’! ‘दामिनी’ जो दबी-कुचली, समाज की मारी है. खैर छोड़िए इन बातों को…..मीडिया ने इस नाम के साथ काफी ब्रेकिंग न्यूज भी चलाए और देश को इंडिया गेट जैसी जगहों पर रैलियों और आंदोलनों में बैनर बनाने के लिए एक नाम भी मिल गया ‘दामिनी को इंसाफ’. हर ओर बस यही चर्चा थी, ‘दामिनी को इंसाफ चाहिए’, दामिनी को इंसाफ दो’! संसद से लेकर कोर्ट तक, संविधान से लेकर आम सोच तक सबमें बहसें हुईं, संशोधनों की जरूरत बताई गई. सोए हुए देश की नई-नई जागी यह आत्मा जैसे हर किसी को झकझोर कर जगाने की कोशिश कर रही थी. लगा इस क्रांति की दौर के बाद एक नया सुकून भरा दौर आएगा जहां महिलाएं भी सुरक्षित होंगी और हैवान भी इंसान बन जाएंगे.
हम इंसानों की फितरत ‘भेड़चाल’ सी होती है. गड़ड़िया जब जिस दिशा में हांकता है सब झुंड में उस तरफ दौड़ पड़ते हैं..जोर खत्म, कि सभी वापस इधर-उधर! आजकल समाज ‘भेड़ों का झुंड’ और ‘मीडिया’ उस झुंड को हांकने वाला गड़डिया बन गया है. दामिनी बलात्कार में भी शायद यही किस्सा था. मीडिया को एक ब्रेकिंग न्यूज चाहिए. ‘मास कम्यूनिकेश्न’ में एक चीज सिखाई जाती है ‘नोज फॉर न्यूज’! मतलब किसी सामान्य सी सूचना को ‘खबर’ या ‘बड़ी खबर’ बनाना, उस खबर में ब्रेकिंग न्यूज बनने की कितनी संभावना है उसे पहचानना और उसके अनुरूप खबरें बनाना. मीडिया आजकल अपनी इस ‘नोज’ का काफी उपयोग या यूं कहें कई जगह ‘सदुपयोग’ कर रही है. बलात्कार की घटनाएं कई होती हैं. पर दामिनी बलात्कार की वीभत्सता में लंबे समय तक ‘ब्रेकिंग न्यूज’ बनने की संभावना को लगभग हर मीडिया संस्थान ने बखूबी पहचाना और ब्रेकिंग न्यूज बनाया. दामिनी के लिए इंसाफ की मांग की. लोग यह देखकर उद्वेलित हुए. उनकी आत्माएं जागीं. उन्होंने कैंडल मार्च किए, मीडिया चैनलों पर अपने गुस्से का इजहार किया. धरना प्रदर्शन किए, पुलिस की लाठियां और पानी के थपेड़े सहे… ताकि दामिनी फिर से समाज का आम हिस्सा बनकर जिए और उसे दर्द की इम्तहां देनेवालों को सजा दिलाकर उसे इंसाफ मिले.
अफसोस कि दामिनी बच न सकी. कई दिनों तक अस्पताल की दीवारों के साथ अपना दर्द बयां करने के बावजूद उसकी मौत हो गई. पर उसकी मौत से सब ठंढा नहीं पड़ा. लोगों ने उसकी मौत को शहादत माना और उसके गुनहगारों को सजा दिलाना मीडिया और उनकी जिंदगी का जैसे एकमात्र मकसद ही बन गया. बुरा तो था यह जो हुआ था लेकिन अच्छा यह था कि इंसानी जज्बातों को झंझोड़ गई थी दामिनी का दर्द! पर यह कल की कहानी भी साबित हुई. साबित हुआ कि उस वक्त वह सब इसलिए था क्योंकि गड़डिया उसे उस ओर हांक रहा था. एक दिन एक दृश्य ऐसा भी दिखा…
13 सितंबर 2013….दो बड़ी महत्त्वपूर्ण खबरें मीडिया का हिस्सा बनीं. पहला था ’दामिनी के केस में हाइकोर्ट का फैसला’…और दूसरा था ‘भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव का पीएम उम्मीदवार बनाना’. एक तरफ देश रो रहा था कि दामिनी को इंसाफ मिले और ऐसी हर सोच को ‘सबक’; दूसरी ओर एक विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा जिसका फिलवक्त राजनीति से कोई खास सरोकार नहीं था. दामिनी केस में हाइकोर्ट का फैसला दोपहर 1:30 बजे तक आ गया. सभी मीडिया चैनलों ने इसे प्रमुखता से दिखाया. दोषियों को फांसी मिली. सबने कहा ‘सही फैसला’! लगा शायद इसपर कोई नई बहस छिड़ेगी क्योंकि उस घटना के बाद भी तमाम अन्य ऐसी जघन्य घटनाएं सामने आईं. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. कुछ ही देर बाद बड़ी खबर के रूप में ‘मोदी की पीएम पद के लिए भाजपा की उम्मीदवारी की घोषणा’ पर कयासों की बहसें लगभग हर मीडिया चैनल की बड़ी खबर थी. अब दामिनी नाम की भी किसी को जरूरत नहीं थी. फैसला आ चुका था. लड़की का असली नाम ‘ज्योति’ थ और ‘ज्योति को मिले इंसाफ पर कई फेसबुक स्टेटस भी अपडेट हो गए थे. बस जो बीत गई थी, वो बात गई…जो आनेवाला है उसे देखो.! और फिर सबकी निगाहें भाजपा की संसदीय बैठक पर टिक गईं. ढोल-नगाड़े, नाच-गानों का वह दृश्य था जिसमें अभी कुछ महीनों पहले देश का गुस्सा उबालने वाली इतनी बड़ी घटना पर आए फैसले का कहीं कोई अंश नजर नहीं आ रहा था. हर तरफ बस भाजपा और मोदी की बस चर्चा थी….और सुषमा मानीं…आडवाणी नहीं माने..मोदी दिल्ली आए आदि,आदि….
शाम ढलते-ढलते 6 बजे तक भाजपा ने आखिरकार मोदी की पीएम पद की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी….और जो दृश्य था, ऐसा लग रहा था मोदी भारत के नए प्रधानमंत्री बन गए हों. इन सबमें ‘दामिनी के नाम का रोष’ कहीं नजर नहीं आ रहा था. शायद इसलिए क्योंकि मीडिया नाम का गड़ड़िय अब भीड़ को ‘मोदी नाम’ की संभावनाओं की ओर धकेल रही थी….जो भी था पर दर्द की एक इबादत लिखने का नया अंदाज था!
यहां इन मसलों से मीडिया को इस तरह जोड़कर ‘मीडिया के कृत्यों’ पर सवाल उठाना नहीं है. मीडिया की प्रासंगिकता आज के दौर में वैसी ही है जैसे ऑक्सीजन के साथ हवा में कार्बन डाइऑक्साइ भी होता है पर सांस में हमेशा हम ऑक्सीजन ही लेते हैं. चपापचय क्रिया के बाद कार्बन डाइऑक्साइड का हम उत्सर्जन हो जाता है. मीडिया भी कुछ उसी हवा की तरह मानी जा सकती है. तमाम तरह की बातों के साथ अच्छे और बुरे दोनों पहलू मौजूद हैं इसमें. समाज की सच्चाईयों का ब्योरा जानते हैं हम इससे…लेकिन गलत वह है जब इन सच्चाईयों के बीच प्राथमिक सच्चाईयों की छवि धूमिल कर दी जाती है. हालांकि इसमें मीडिया की प्राथमिकताओं पर बहस का मेरा उद्येश्य नहीं है लेकिन बातचीत के महत्त्वपूर्ण हिस्से के रूप में यह यहां उल्लेखनीय बन गया.
आज 16 दिसंबर है….16 दिसंबर मतलब ‘दामिनी बलात्कार’ की बरसी. मीडिया एक बार फिर गड़डिए की तरह इस बरसी को मनाने के लिए ‘भेड़ों के झुंड (आम जनता) को उद्वेलित कर रहा है. लेकिन इसका तात्पर्य आखिर क्या है? बरसी तब मनाई जाती है जब किसी की मौत हो. ‘दामिनी’ की घटना को हम एक एक वीभत्स घटना के रूप में देखते हैं. अगर बरसी मना रहे हैं तो इस वीभत्सता का अंत हो जाना चाहिए था लेकिन क्या हम ऐसा कह सकते हैं? अगर नहीं, तो इस बरसी का आखिर औचित्य क्या है?
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